1-गाँव
कोई कहता है,
गाँव सीदा -सादा है
कोई कहता है,
गाँव मूक है,
कोई कहता है
गाँव अनपढ़ है।
मैं सोंच रहा हूं।
गाँव का रंग कैसा है?
मैं सोंच रहा हूं।
गाँव की परिभाषा
क्या हैं ?
मैं सोंच रहा हूं,
देखूं, गाँव कैसा है?
कभी कहने को दिल करता है
सीधे-सादे गाँव को जो ठग सकता है,
मूक गाँव को जो बलात्कार
कर सकता है
अनपढ गाँव को जो लूट सकता
है
वह शहर कितना चतुर है ?
शहर कितना शातिर है?
शहर कितना ज्ञानी है ?
और, कभी कभी तो मैं खुद सोंचता हूं
गाँव तक पहुंचने का
रास्ता जिन्हें मालूम ही नहीं है
वे गाँव की बात करते
क्यों हैं !
कभी तो लगता है
इसलिए हो सकता है सायद
शहर के खुबसूरत सडकों की तरह
गाँव की पगडंडिया कभी
खूबसुरत नहीं हो सके
पजेरो में गाँव स्कूल नहीं जा
पाये ।
शहर की तारीफ न कर सकनेवाला
शहर को न ठग पानेवाला
शहर की झूठी तारीफ न कर पानेवाला
गाँव वास्तव में
काफी सीदा -सादा है,
गाँव सच में ही मूक है,
गाँव सच में ही अनपढ
है।
और लगता है,
कोई कुछ भी कहता रहे,
पर, किसी से कभी
झूठ न बोलनेवाला,
किसी को न ठगनेवाला
किसी का दिल न दुखानेवाला
गाँव हमेशा ऐसा ही
बना रहे।
........
2-हवा
काफी देर से
कहीं जाने के लिए
सडक के पास खड़ा हूं
बारिश गिर रही है झरर...र...र...
कोई अंधड नहीं
बिजली- की कड़क नहीं
इसलिए शांती है आज
कहूं, मैं शान्त हूं।
परसों भी
उत्तर दिशा की ओर जाते
इसी तरह बारिश हो रही थी
पानी के साथ हवा का झोंका भी था
सडक बन्द हुआ था, पेड़ गिरकर ।
कल भी फिर
पूर्व की ओर गया
और मूसलधार बारिश
जगह-जगह टूट रहे थे रास्ते
पानी के साथ तेज अंधड चल रहा था
मन में वैसी ही तेज अंधड चल रही थी
इसलिए अशान्त था कल
परसों भी कहां शान्त था
कहूं, मैं तब भी अशान्त था।
उफ...!
कितना शान्त मेरा मन?
पानी के साथ अंधड की तरह
चल रहा था हवा का झोंका
बिजली-की तरह,
हवा की तरह,
अशान्त।
आज भी उसी तरह
बारिश हो रही है एक रफ्तार से
झर...झर..झर...झर ...
लेकिन,
आज अंधड नही है पानी के साथ
वैसी तेज हवा भी नहीं है
केवल बारिश गिर रही है झम..झम...झम..
शान्त, शीतल समीर
प्रकृति प्यारी लग रही है।
चारों ओर छाई हरयाली
और मन?
मन भी वैसा ही है
वैसा ही शीतल, शान्त और रमणीय है।
इसलिए,
पहले से ही
कहीं जाने के लिए यहां
सडक किनारे खड़ा हूं मैं
कि कब बारिश थमेगा।
कैसा होता है इंतजार?
कब थमेगी?
नहीं,
इस इंतजार में, लेकिन
नाच रहा है आज मन
हवा अंधड, बिजली बारिश
लगता है सब शान्त है आज।
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3-कविता लिखना है फिर से
‘आकाश बहुराया है
धरती अचल है
खिड़की दरवाजों को बंद करो दोस्त
हवा में एक अजीब सा गंध आया है।’
कवि राजेन्द्र भण्डारी की यह पंक्तियां
जब-जब पढ़ता हूं,
मन में सिर्फ इतना सोंचता हूं
हवा में एक अजीब सा ही नहीं
अभी अजीब-अजीब गन्ध आ रहे है
इसलिए कवि का दिल कहना चाहता है
यहाँ फिर दूसरी कविता लिखा जाना है
कविताओं में पंक्तियों को जोड़ना होगा
क्योंकि
हवा में अजीब-अजीब सा गन्ध चल रहा है ।
गन्ध ही नहीं....
सुना आपने, हवा में गंध ही नहीं
आजकल हवा में तरह-तरह की
बातें सुनाई दे रही है
बातें शुरू हो रही हैं
गंध कर क्या ही सकता है हमें?
गन्ध ही तो है न।
रोक देंगे हाथों से, रुमाल से...
बातें तरह-तरह की
बातें अजीब-अजीब सी यहां
कहें,
रोक सकेंगे आप...?
आप नहीं मानेंगे शायद
बातों से पहाड नहीं ढांपे जाते
बातों से आकाश ढांपा जा सकता है
एक सत्य बात कहूं?
बातों से रास्तों को रोका जा सकता है
सीमाओं को पाटा जा सकता है
अगर नहीं तो कहें
किस तरह रोकना चाहा पोस्टर ने मुझे?
कैसे रास्ते ने रोकना चाहा हमें?
कहें तो,
किस तरह अपनी जमीन छीनकर ढ़केलना चाहा
हमें?
इतना समझें आप
बातों के लिए दिमाग चाहिए
सोंचने के लिए दिल भी तो चाहिए
तब तो,
बताएं क्या, पोस्टर के पास
दिमाग और दिल दोनो हैं क्या?
बातें भी तरह तरह की
सुनाई दे रही है हवा में आजकल
सुनते हैं किसी को कहते हुए कि
इतिहास में तुम्हारी पहचान ही नहीं है
बातें, हवा की तरह चले
जो मिट्टी मेरे पसीने से सींची हुई है
जो मिट्टी मेरे पुरखों की लहू से भीगा
हुआ है
जिस मिट्टी से जन्मा हुँ मैं इस देश में
जिस जबान के साथ जन्मा हुँ इस जगह
जिस जबान में प्यार मोहब्बत की बातें
करता हूं
वही है मेरी पहचान
इतिहास के पन्नों पर कैसे नहीं दिखा वह?
छिः
बातें भी तरह तरह की
अजीबोगरीब गंध की तरह ।
इसलिए कविवर,
फिर दूसरी कविता लिखा जाना है
कविता में पंक्तियों को जोडना होगा
हां, कविता लिखना होगा फिर से...।
--*--
4-प्रार्थनाओं में हमारा देश...
मन्दिर में दिन के पहली रोशनी के साथ
शंख और घंटिया बजती है
बजते आए हैं
बजते रहेंगे
हां, बजते रहने चाहिए, नहीं भूलना चाहिए।
पीड़ी दर पीड़ी मन्दिर में
शंख-घंटिया बजते आये है /बजते रहने चाहिए
आरती, भजन,
कीर्तन होना चाहिए ।
शान्ति, भाइचारे और एकता की
प्रार्थनामय दश उंगलियां जुडने चाहिए
ऊँ मन्त्रोच्चारण करना होगा / हो रहा है
गीता और वेदों का पाठ हो रहा है / होता रहना चाहिए ।
गोंपा में हरेक सुबह, मध्यान्न और शाम को
‘ऊँ मने पेमे पद्मे हूँ’ का उच्चारण होता आया है
108-मालाओं का जाप हो रहा है / जाप होता रहना चाहिए
हां, हरेक दिन माने घूम रहे हैं /घूमते रहने चाहिए
हरेक दिन ग्यालिङ बज रहे है /बजते रहने चाहिए
शान्ति, भाईचारे,
एकता का पाठ पढ़ा जाना चाहिए
बुद्धम्, शरणम्,
गच्छामी- गूंजता रहना चाहिए
हरेक सुबह यहां ग्रंथों का पाठ करना
होगा ।
गिर्जाघरों में हरेक सुबह
पास्टर, फादर,
ब्रदर और सिस्टर के होंठ
प्रार्थना के शब्द गाते है
बूढ़ों से छोटे बच्चों तक
मालूम नहीं,
कब से पवित्र बाइबल का पाठ कर रहे हैं
शान्ति, शान्ति और शान्ति...
हे ईश्वर! गल्तियों में हम अज्ञानियों को माफ करें
एकता और अखंडता की भावना उत्पन्न करें।
हां,
यहां हरेक सुबह, हरेक शाम और हरेक दिन
मन्त्रोच्चारण होते है / किया जाता है इसी तरह शान्ति की
मनोकामना रखी जाती है अनेकता में एकता
की ।
हां,
यहां हरेक सुबह, हरेक शाम,
हरेक दिन
वेद पढ़े जाते है,
शास्त्र पढ़े जाते है,
बाइबल और कुरान खोले जाते है
हां, यही तो है हमारा महान देश
धर्म का देश/घर्मनिरपेक्षता का देश।
--
शायद कोई कहेगा यहां,
कोई पूछ सकता है हमें यहां
कहां है देश यहां, कहां है राष्ट्र यहां?
कहेगा कोई हमें यहां
प्रार्थनाओं में देश को तलाश करो
एकता और अखंडता का राष्ट्र ढ़ूंढो।
--
अगर कोई पूछे तो कह देंगे हम
‘हे ईश्वर ! हमारे राष्ट्र के
उपर कृपा करें –
नहीं
‘हे ईश्वर ! इन संयुक्त राज्यों के प्रति कृपा करें –जैसे
प्रार्थनाओं में यहाँ
देश को टुकडों में बांटना नहीं है, बांटा भी नहीं गया है ।
--
हां, इतिहास बार-बार नहीं दुहरेगा
यहां
किसी सिख की परेशानी में
कोई गुलाबसिंह चुप नहीं बैठेगा
सिख भी किसी के दुःख में
मूक दर्शक बनकर नहीं बैठेंगे अब।
प्रार्थनाओं में गुम न होनेवाला,
यह है धर्मनिरपेक्षता का देश
वेद-गीता,
पोस्तक, कुरान और बाइबल के साथ ही
‘इण्टिग्रेशन’-की बातें तलाशना नहीं पडेगा अब।
--* --
5-मुझे फूल नहीं बनना है
फूल
जितना भी सुन्दर हो
मुझे फूल की तरह नहीं होना है,
फूल जैसा रूप नहीं चाहिए मुझे ।
क्यों..! पूछ रहे हैं?
पीडा फूल जैसे होने के कारण
हुजूर..! जानना चाहते है?
पूछें...
फूल जैसा ही
कलियां जैसी ही,
जो हरेक दिन बलात्कृत है
दर्द- फूलों जैसा होने से
दर्द- कली जैसे होने का
दर्द- सुन्दर होने का
कैसा होता है, कहें ?
उंचे शिखरों को देखते हुए
शान्ति का गीत गाते हुए
कंचनजंघा की गोदी में
कहते हो, बैठे हैं,
महान देश भारत
और कहते हो
भारत मां है हमारी
सारे जहां से अच्छा।
पवित्रता का नाम जोड़कर
कंचनजंघा के गीत गाते हो ।
यहीं रहकर गाते हो
जहां बहती है तीस्ता –रंगीत
कहते हैं हम सभी
यहां बहती है गंगा -जमुना और सरस्वती।
कंचनजंघा के नीचे
मां की गोदी में
हरेक दिन
हर शाम
हर रात...
अपने पिता से
बेटी असुरक्षित होने से
अपने मामा से ही
भान्जी शोषित होने पर
अपने ही शिक्षक से
छात्रा असुरक्षित होने से
मैं किस तरह
फूलों की तरह रह सकूंगी?
शोषित होकर
पीडित बनकर
किसी अखबार के
पहली खबर नहीं बनना है
इसलिए मुझे फूल नही बनना है।
इसके बदले
कांटों की तरह बनूंगी
पत्थर जैसी बन जाउंगी
चट्टानों की तरह बनूंगी।
कांटों को क्या मालूम
टूटने का दर्द?
टूटकर भी दर्द दूंगी।
पत्थर को क्या मालूम
टूटने का दर्द?
टूटकर भी चोट दूंगा ।
चट्टान को क्या मालूम
टूटने का मर्म?
टूटकर, लेकिन बिस्फोट बन जाउंगी ।
टूटकर
खुद की टूटकर
टूटकर भी
प्रतिउत्तर में कमसेकम
रक्तरंजित तो कर दूंगी ।
-17.06.2014
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